1967 में शक्ति सामंत के निर्देशन में फ़िल्म आई थी एन ईवनिंग इन पेरिस। इस फ़िल्म में रहस्य था, साजिश थी, रोमांच था। कई सालों के बाद इस फ़िल्म की याद इसलिए आ रही है कि इस बार के पेरिस ओलंपिक में भारत खिलाड़ियों की सफलता व विफलता उक्त फ़िल्म के रहस्य व रोमांच की तरह भरी रही। भारत के खिलाड़ियों, खेल विशेषज्ञों, खेल प्रशिक्षकों आदि के लिए यह ओलंपिक भविष्य के लिए कई चुनौतियों को छोड़ कर गया है। लॉस एंजिलिस ओलंपिक भले ही चार साल दूर है, लेकिन आगामी ओलंपिक में सफलता की पटकथा अभी से शुरू करना होगा। पेरिस ओलंपिक ने कई सीखें दी है, जो भविष्य की राह आसान कर सकती हैं। भारत उस मनहूस दिन को कभी भूल नहीं सकता, जब विनेश फोगाट को लेकर ओवरवेट की खबरें आई। उनके फाइनल खेलने पर रोक लगी तो पूरा देश स्तब्ध हो गया। सभी मान कर चल रहे थे कि 50 किलोभार में भारत को स्वर्ण पदक मिलेगा। जिस तरह विनेश अपराजित योद्धा की तरह आगे बढ़ रही थी, यह मुश्किल भी नही था। जैसा फिल्मों में होता है क्लाइमैक्स, यह किसी भी फिल्म का हाई पॉइंट होता है, यहीं से फ़िल्म की रूपरेखा बदलती है। कुछ ऐसा ही ओलंपिक में हुआ। निश्चित तौर पर खिड़कियों व खेल प्रेमियों को झटका लगा। जिस तरह से निशानेबाजी में मनु भाकर ने शुरुआत की, उससे पूरा देश रोमांचित हो उठा था। पेरिस के लिए खिलाड़ियों ने भी खूब पसीने बहाए थे।

कुल मिला कर कहे तो यह ओलिंपिक हमारे लिए मिश्रित सा रहा है, एक तरफ हम पिछले टोक्यो ओलिंपिक से एक मैडल कम लेकर आये वह भी गोल्ड वही दुसरी और इस बार हमने शूटिंग खेल में 3 ब्रोंज़ मैडल जीते और 3 इवेंट में हम चोथे स्थान पर रहे, वेटलिफ्टिंग, आर्चरी, बैडमिंटन में भी हम कम से कम ब्रोंज़ मैडल से चुके है. बॉक्सिंग में मैडल से सिर्फ एक जीत से हमारे 2 बॉक्सर दूर रहे.

रेसलिंग में बदकिस्मती ने हमारा साथ नहीं छोड़ा और विनेश फोगाट तथा निशा दहिया का मैडल आते आते रह गया, यह कहानी सबको पता है. हॉकी का ब्रोंज़ इस मामले में सुखद है कि हम लगातार दूसरी बार विश्व में तीसरे नंबर पर रहे. नीरज चोपड़ा ने हमें लगातार दूसरी बार गौरव का एह्सास कराया लेकिन सच यह भी है कि पूरे ओलिंपिक में भारत देश का हर खेल प्रेमी नीरज का ही गोल्ड पक्का मान कर चल रहा था. यदि नीरज गोल्ड लेकर आता तो निश्चित रूप से हमारी रैंक 52 नंबर पर होती. एक गोल्ड ने हमें 20 देशों के नीचे लाकर खडा कर दिया.

सही से यदि हम पेरिस ओलिंपिक का आंकलन करें तो नंबर 1 पर रहने वाले अमेरिका ने इतने मैडल जीते है, जितने कि हमारे एथलीट पेरिस में नहीं गए. हमने 117 एथलीट इस ओलिंपिक में खेलने के लिए भेजे वही अमेरिका ने 40 गोल्ड मैडल के साथ कुल 126 मैडल जीते, दुःख की बात रही कि हमारा पडोसी देश पाकिस्तान सिर्फ 1 गोल्ड मैडल जीत कर हमसे 9 स्थान ऊपर रहा है. हम 84 मैडल विनर  देशों के बीच 71वें नंबर पर रहे.

सवाल सबके जहन में कुछ दिन तक यही रहेगा कि हम विश्व की सबसे युवा आबादी वाले देश जो कि विश्व में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश भी है वह ओलंपिक की पदक तालिका में सबसे नीचे से क्यों गिना जाता है, क्यों हमारी गिनती नीचे से शुरू होती है और 4 – 6 पदक लेकर ही खुश होते और जश्न मनाते है.

इसके पीछे की एक बड़ी वजह यह है कि आज भी हमारें देश में खेल और शारीरिक शिक्षा को सबसे नीचे पायदान पर माना जाता है. देश के 50% से अधिक स्कूलों में आज भी शारीरिक शिक्षक और खेल प्रशिक्षक नहीं है और जहां पर है भी, वह भी खेल के सुविधाओं के अभाव में कुछ भी नहीं कर पा रहे है. मेरा हमेशा से मानना है कि देश में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है जरूरत है उन्हें स्कूल लेवल से ही तरासने की, पिछले 10 वर्षों से इस क्षेत्र में काफी काम तो हुआ है लेकिन फिर भी खेल महाशक्ति बनने के लिए यह सब नाकाफी है आज इस बात कि जरूरत है हम देश भर के स्कूलों में शारीरिक शिक्षकों को उनका उचित सम्मान दें उनको सुविधा दें जिससे कि वह खिलाड़ियों के बीच में छुपे हुए टैलेंट को बाहर निकाल कर देश में खेलों के लिए एक सुखद माहौल तैयार करते हैं. आप माने या ना माने लेकिन एक कडवा सच यह भी है कि देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 2 – 4 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने पिछले 20 सालों से शारीरिक शिक्षकों के लिए स्थायी नौकरी निकाली है और जहां अनुबंध के आधार पर नौकरी निकली भी है वह भी 3000 से लेकर अधिकतम 20000 रुपये सेलरी ही दे रहे है. अब ऐसे में वह शिक्षक कैसे देश के खेल विकास में योगदान देगा.

भारतीय जनमानस में अब यह कहावत की “खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब और पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब” शनें: शनें: अब उसकी जगह आ गया है कि ‘खेलोगे कूदोगे तो बनोगे लाजवाब और पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब’ लेकिन लाजवाब बनाने के लिए अभी जमीन स्तर पर बहुत कुछ करना बाकी है केंद्र सरकार की खेलो इंडिया, टॉप्स जैसी स्कीमों ने एक लेवल पर पहुंचे हुए खिलाड़ी को मदद तो की है लेकिन जमीनी स्तर पर अभी हालत जस के तस है अब जरूरत है एक अच्छे स्तर से पॉलिसी बनाकर देश के स्कूलों को उसका केंद्र बनाया जाए जहां पर खिलाड़ियों के उचित सुख सुविधा और उच्च क्वालिटी का प्रशिक्षण दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं होगा जब हम भी दूसरे देशों की तरह ओलंपिक होने पर तालिका में पहले 10 देश में आएंगे.

  • लेखक पेफी के राष्ट्रीय सचिव सह भारतीय खेल प्राधिकरण के स्वायात्शासी निकाय के सदस्य है.

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